द्वितीय अध्याय ( आसन वर्णन )
घेरण्ड संहिता के दूसरे अध्याय में सप्तांग योग के दूसरे अंग अर्थात् आसन का वर्णन किया गया है । घेरण्ड ऋषि ने आसनों के बत्तीस ( 32 ) प्रकारों को माना है । घेरण्ड संहिता के अनुसार आसन करने से साधक के शरीर में दृढ़ता ( मजबूती ) आती है । अब आसनों के क्रम को प्रारम्भ करते हैं ।आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तव: । चतुरशीतिलक्षाणि शिवेन कथितानि च ।। 1 ।। तेषां मध्ये विशिष्टानि षोडशोनं शतं कृतम् । तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिंशदासनं शुभम् ।। 2 ।।
भावार्थ :- इस पृथ्वी पर जितने भी जीवजन्तु अर्थात् प्राणी हैं आसनों की संख्या भी उतनी ही मानी गई है । प्राचीन काल में भगवान शिव ने उनमें से चौरासी लाख ( 8400000 ) आसनों को माना है । उसके बाद अर्थात् मध्यकाल में चौरासी सौ ( 8400 ) आसनों को प्रमुख माना गया था । जिनमें से मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में मात्र बत्तीस ( 32 ) आसनों को ही मनुष्य के लिए शुभ अर्थात् कल्याणकारी माना गया है । विशेष :- आसनों की संख्या के विषय में सभी योग आचार्यों के अलग – अलग मत हैं । जिनमें महर्षि घेरण्ड ने घेरण्ड संहिता में बत्तीस ( 32 ) आसनों का, स्वामी स्वात्माराम ने हठ प्रदीपिका में पन्द्रह ( 15 ) आसनों का, योगी श्रीनिवासन ने हठ रत्नावली में छत्तीस ( 36 ) आसनों का, योगी गुरु गोरक्षनाथ ने सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में मात्र तीन ( 3 ) आसनों का, शिव संहिता में मात्र चार ( 4 ) आसनों का, योगदर्शन के व्यास भाष्य में महर्षि व्यास ने तेरह ( 13 ) आसनों का वर्णन किया है । ऊपर वर्णित आसनों की संख्या को सभी विद्यार्थी अच्छे से याद कर लें । इनसे सम्बंधित कोई भी प्रश्न परीक्षा में पूछा जा सकता है । इसके अतिरिक्त ऊपर वर्णित श्लोकों से सम्बंधित भी कुछ प्रश्न बनते हैं । जिनका वर्णन करना आवश्यक है । जैसे- आसनों की संख्या किनके बराबर मानी गई है ? जिसका उत्तर है सभी जीवजन्तुओं के बराबर । प्राचीन काल में भगवान शिव ने आसनों के कितने प्रकार ( संख्या ) माने हैं ? जिसका उत्तर है चौरासी लाख । मध्यकाल में आसनों के कितने प्रकारों को मान्यता मिली है ? जिसका उत्तर है चौरासी सौ । मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में, महर्षि घेरण्ड या घेरण्ड संहिता में आसनों की कितनी संख्या मानी गई है ? जिसका उत्तर है बत्तीस ।
द्वितीय अध्याय ( आसन वर्णन )
घेरण्ड संहिता के दूसरे अध्याय में सप्तांग योग के दूसरे अंग अर्थात् आसन का वर्णन किया गया है । घेरण्ड ऋषि ने आसनों के बत्तीस ( 32 ) प्रकारों को माना है । घेरण्ड संहिता के अनुसार आसन करने से साधक के शरीर में दृढ़ता ( मजबूती ) आती है । अब आसनों के क्रम को प्रारम्भ करते हैं ।आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तव: । चतुरशीतिलक्षाणि शिवेन कथितानि च ।। 1 ।। तेषां मध्ये विशिष्टानि षोडशोनं शतं कृतम् । तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिंशदासनं शुभम् ।। 2 ।।
भावार्थ :- इस पृथ्वी पर जितने भी जीवजन्तु अर्थात् प्राणी हैं आसनों की संख्या भी उतनी ही मानी गई है । प्राचीन काल में भगवान शिव ने उनमें से चौरासी लाख ( 8400000 ) आसनों को माना है । उसके बाद अर्थात् मध्यकाल में चौरासी सौ ( 8400 ) आसनों को प्रमुख माना गया था । जिनमें से मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में मात्र बत्तीस ( 32 ) आसनों को ही मनुष्य के लिए शुभ अर्थात् कल्याणकारी माना गया है । विशेष :- आसनों की संख्या के विषय में सभी योग आचार्यों के अलग – अलग मत हैं । जिनमें महर्षि घेरण्ड ने घेरण्ड संहिता में बत्तीस ( 32 ) आसनों का, स्वामी स्वात्माराम ने हठ प्रदीपिका में पन्द्रह ( 15 ) आसनों का, योगी श्रीनिवासन ने हठ रत्नावली में छत्तीस ( 36 ) आसनों का, योगी गुरु गोरक्षनाथ ने सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में मात्र तीन ( 3 ) आसनों का, शिव संहिता में मात्र चार ( 4 ) आसनों का, योगदर्शन के व्यास भाष्य में महर्षि व्यास ने तेरह ( 13 ) आसनों का वर्णन किया है । ऊपर वर्णित आसनों की संख्या को सभी विद्यार्थी अच्छे से याद कर लें । इनसे सम्बंधित कोई भी प्रश्न परीक्षा में पूछा जा सकता है । इसके अतिरिक्त ऊपर वर्णित श्लोकों से सम्बंधित भी कुछ प्रश्न बनते हैं । जिनका वर्णन करना आवश्यक है । जैसे- आसनों की संख्या किनके बराबर मानी गई है ? जिसका उत्तर है सभी जीवजन्तुओं के बराबर । प्राचीन काल में भगवान शिव ने आसनों के कितने प्रकार ( संख्या ) माने हैं ? जिसका उत्तर है चौरासी लाख । मध्यकाल में आसनों के कितने प्रकारों को मान्यता मिली है ? जिसका उत्तर है चौरासी सौ । मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में, महर्षि घेरण्ड या घेरण्ड संहिता में आसनों की कितनी संख्या मानी गई है ? जिसका उत्तर है बत्तीस ।
द्वितीय अध्याय ( आसन वर्णन )
घेरण्ड संहिता के दूसरे अध्याय में सप्तांग योग के दूसरे अंग अर्थात् आसन का वर्णन किया गया है । घेरण्ड ऋषि ने आसनों के बत्तीस ( 32 ) प्रकारों को माना है । घेरण्ड संहिता के अनुसार आसन करने से साधक के शरीर में दृढ़ता ( मजबूती ) आती है । अब आसनों के क्रम को प्रारम्भ करते हैं ।आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तव: । चतुरशीतिलक्षाणि शिवेन कथितानि च ।। 1 ।। तेषां मध्ये विशिष्टानि षोडशोनं शतं कृतम् । तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिंशदासनं शुभम् ।। 2 ।।
भावार्थ :- इस पृथ्वी पर जितने भी जीवजन्तु अर्थात् प्राणी हैं आसनों की संख्या भी उतनी ही मानी गई है । प्राचीन काल में भगवान शिव ने उनमें से चौरासी लाख ( 8400000 ) आसनों को माना है । उसके बाद अर्थात् मध्यकाल में चौरासी सौ ( 8400 ) आसनों को प्रमुख माना गया था । जिनमें से मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में मात्र बत्तीस ( 32 ) आसनों को ही मनुष्य के लिए शुभ अर्थात् कल्याणकारी माना गया है । विशेष :- आसनों की संख्या के विषय में सभी योग आचार्यों के अलग – अलग मत हैं । जिनमें महर्षि घेरण्ड ने घेरण्ड संहिता में बत्तीस ( 32 ) आसनों का, स्वामी स्वात्माराम ने हठ प्रदीपिका में पन्द्रह ( 15 ) आसनों का, योगी श्रीनिवासन ने हठ रत्नावली में छत्तीस ( 36 ) आसनों का, योगी गुरु गोरक्षनाथ ने सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में मात्र तीन ( 3 ) आसनों का, शिव संहिता में मात्र चार ( 4 ) आसनों का, योगदर्शन के व्यास भाष्य में महर्षि व्यास ने तेरह ( 13 ) आसनों का वर्णन किया है । ऊपर वर्णित आसनों की संख्या को सभी विद्यार्थी अच्छे से याद कर लें । इनसे सम्बंधित कोई भी प्रश्न परीक्षा में पूछा जा सकता है । इसके अतिरिक्त ऊपर वर्णित श्लोकों से सम्बंधित भी कुछ प्रश्न बनते हैं । जिनका वर्णन करना आवश्यक है । जैसे- आसनों की संख्या किनके बराबर मानी गई है ? जिसका उत्तर है सभी जीवजन्तुओं के बराबर । प्राचीन काल में भगवान शिव ने आसनों के कितने प्रकार ( संख्या ) माने हैं ? जिसका उत्तर है चौरासी लाख । मध्यकाल में आसनों के कितने प्रकारों को मान्यता मिली है ? जिसका उत्तर है चौरासी सौ । मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में, महर्षि घेरण्ड या घेरण्ड संहिता में आसनों की कितनी संख्या मानी गई है ? जिसका उत्तर है बत्तीस ।
बत्तीस आसनों के नाम
सिद्धं पद्मं तथा भद्रं मुक्तं वज्रञ्च स्वस्तिकम् । सिंहञ्च गोमुखं वीरं धनुरासनमेव च ।। 3 ।। मृतं गुप्तं तथा मत्स्यं मत्स्येन्द्रासनमेव च । गोरक्षं पश्चिमोत्तानं उत्कटं संकटं तथा ।। 4 ।। मयूरं कुक्कुटं कुर्मं तथाचोत्तानकूर्मकम् । उत्तान मण्डूकं वृक्षं मण्डूकं गरुडं वृषम् ।। 5 ।। शलभं मकरं चोष्ट्रं भुजङ्गञ्चयोगासनम् । द्वात्रिंशदासनानि तु मर्त्यलोके हि सिद्धिदम् ।। 6 ।।
भावार्थ :- इस मृत्युलोक अर्थात् वर्तमान समय में निम्न बत्तीस आसन ही मनुष्य को सिद्धि प्राप्त करवाने वाले हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है :- 1. सिद्धासन, 2. पद्मासन, 3. भद्रासन, 4. मुक्तासन, 5. वज्रासन, 6. स्वस्तिकासन, 7. सिंहासन, 8. गोमुखासन, 9. वीरासन, 10. धनुरासन, 11. मृतासन / शवासन, 12. गुप्तासन, 13. मत्स्यासन, 14. मत्स्येन्द्रासन, 15. गोरक्षासन, 16. पश्चिमोत्तानासन, 17. उत्कट आसन, 18. संकट आसन, 19. मयूरासन, 20. कुक्कुटासन, 21. कूर्मासन, 22. उत्तानकूर्मासन, 23. मण्डूकासन, 24. उत्तान मण्डूकासन, 25. वृक्षासन, 26. गरुड़ासन, 27. वृषासन, 28. शलभासन, 29. मकरासन, 30. उष्ट्रासन, 31.भुजंगासन व 32. योगासन ।
सिद्धासन वर्णन
योनिस्थानकमङ्घ्रिमूलघटितं संपीड्य गुल्फेतरम् मेढ्रे सम्प्रणिधाय तं तु चिबुकं कृत्वा हृदि स्थापितम् । स्थाणु: संयमितेन्द्रियोऽचलदृशा पश्यन् भ्रुवोरन्तरमेवंमोक्षविधायतेफलकरं सिद्धासनं प्रोच्यते ।। 7 ।।
भावार्थ :- एक पैर की एड़ी ( विशेषतः बायें पैर की ) से योनिस्थान ( अंडकोशों के नीचे ) को दबायें । दूसरे पैर की एड़ी को लिङ्गमूल ( स्वाधिष्ठान चक्र के नीचे का वह स्थान जहाँ से लिंग शुरू होता है ) पर रखें । इसके बाद अपनी ठुड्डी को हृदय प्रदेश के ऊपर स्थापित ( टिकाएं ) करके पूर्ण रूप से स्थिर होकर अर्थात् बिना किसी प्रकार की हलचल किये दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य ( आज्ञा चक्र ) में लगाकर बैठना सिद्धासन कहलाता है । इस प्रकार सिद्धासन का अभ्यास करने से साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
पद्मासन की विधि
वामोरूपरि दक्षिणं च चरणं संस्थाप्य वामं तथा दक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम् । अङ्गुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेद् एतद्व्याधिविनाशकारणपरं पद्मासनं प्रोच्यते ।। 8 ।।
भावार्थ :- बायीं जंघा पर दायें पैर को व दायीं जंघा पर बायें पैर को रखें । अब दोनों हाथों को कमर के पीछे से ले जाते हुए दायें हाथ से दायें व बायें हाथ से बायें पैर के अँगूठों को मजबूती से पकड़ें । इसके बाद अपनी ठुड्डी को छाती पर लगाकर नासिका के अग्र भाग ( अगले हिस्से ) को देखना पद्मासन कहलाता है । पद्मासन का अभ्यास करने से साधक के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । विशेष :- सामान्यतः ऊपर वर्णित पद्मासन की विधि को हम बद्ध पद्मासन के नाम से जानते हैं । लेकिन यहाँ पर महर्षि घेरण्ड ने इसे पद्मासन कहकर संबोधित किया है ।
भद्रासन विधि व लाभ
गुल्फौ च वृषणस्याधो व्युत्क्रमेण समाहित: । पादाङ्गुष्ठौ कराभ्याञ्च धृत्वा च पृष्ठदेशत: ।। 9 ।। जालन्धरं समासाद्य नासाग्रमवलोकयेत् । भद्रासनं भवेदेतत्सर्वव्याधिविनाशकम् ।। 10 ।।
भावार्थ :- अपने दोनों पैरों की एड़ियों को उल्टा करके ( पँजें पीछे व एड़ियां आगे की ओर ) अंडकोशों के नीचे रखें । इसके बाद दोनों हाथों को पीछे की ओर ले जाकर पैरों के दोनों अँगूठों को मजबूती से पकड़ें फिर जालन्धर बन्ध लगाकर ( ठुड्डी को छाती में लगाना ) नासिका के अग्रभाग ( अगले हिस्से ) को देखना भद्रासन कहलाता है । भद्रासन का अभ्यास करने से साधक के सभी प्रकार के रोग समाप्त हो जाते हैं ।
मुक्तासन वर्णन
पायुमूले वामगुल्फं दक्षगुल्फं तथोपरि । समकायशिरोग्रीवं मुक्तासनन्तु सिद्धि दम् ।। 11 ।।
भावार्थ :- पैर की बायीं ऐड़ी को गुदाद्वार में लगाकर उसके ऊपर दायें पैर की एड़ी को रखें । सिर व गर्दन को बिना हिलायें बिलकुल सीधी करके बैठना मुक्तासन कहलाता है । यह मुक्तासन साधक को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करता है ।
वज्रासन वर्णन
जंघाभ्यां वज्रवत्कृत्वा गुदपार्श्वे पदावुभौ । वज्रासनं भवेदेतद्योगिनां सिद्धिदायकम् ।। 12 ।।
भावार्थ :- दोनों जँघाओं को वज्र के समान मजबूत व स्थिर करके दोनों पैरों के पँजों को गुदा प्रदेश के दोनों ओर समान रूप से रखते हुए बैठना वज्रासन कहलाता है । यह वज्रासन योगियों को सिद्धि प्रदान करने वाला होता है ।
स्वस्तिकासन वर्णन
जानूर्वोरन्तरे कृत्वा योगी पादतले उभे । ऋजुकाय: समासीन: स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ।। 13 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों के तलवों को पिंडलियों व जाँघों के बीच में रखकर ( बायें पैर के तलवे को दायें पैर की पिंडली व जँघा के बीच व दायें पैर के तलवे को बायें पैर की पिंडली व जँघा के बीच में रखें ) तनाव रहित अर्थात् सुखपूर्वक बैठना स्वस्तिकासन कहलाता है ।
सिंहासन वर्णन
गुल्फौ च वृषणस्याधो व्युत्क्रमेणोर्ध्वतां गतौ । चितिमूलौ भूमिसंस्थौ कृत्वा च जानु नोपरि ।। 14 ।। व्यक्तवक्त्रो जलंध्रञ्च नासाग्रमवलोकयेत् । सिंहासनं भवेदेतत् सर्वव्याधिविनाशकम् ।। 15 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों के पँजों को अंडकोशों के नीचे जमीन में रखते हुए ( पँजे नीचे व ऐड़ी ऊपर की ओर ) दोनों घुटनों को जमीन में टिकाएं । इसके बाद के ठीक ऊपर मुहँ को पूरा खोलकर जालन्धर बन्ध लगाते हुए नासिका के अग्रभाग को देखना सिंहासन कहलाता है । सिंहासन का अभ्यास करने से साधक के सभी प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं ।
गोमुखासन वर्णन
पादौ च भूमौ संस्थाप्य पृष्ठपार्श्वे निवेशयेत् । स्थिरकायं समासाद्य गोमुखं गोमुखाकृति: ।। 16 ।।
भावार्थ :- साधक सर्वप्रथम अपने दोनों पैरों ( पँजों ) को भूमि पर रखकर अपनी पीठ ( नितम्बों ) के दोनों ओर स्थापित करें ( इसमें दोनों घुटने एक – दूसरे को क्रॉस करते हुए एक – दूसरे के ऊपर नीचे रहेंगे ) और शरीर को बिना हिलायें- डुलायें उसी स्थिति में रखें । इस प्रकार शरीर की आकृति गाय के मुख के समान बन जाती है । इसी को गोमुखासन कहा गया है । विशेष :- गोमुखासन को परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण आसन माना जाता है । इससे सम्बंधित निम्न प्रश्न पूछे जाते हैं :- गोमुखासन में शरीर की आकृति गाय के किस अंग के समान होती है ? जिसका उत्तर है गाय के मुहँ अर्थात् मुख के समान । इसके अतिरिक्त गोमुखासन स्वयं में ही पूरक आसन होता है । इसको एक बार बायें पैर को ऊपर करके और फिर दायें पैर को ऊपर रखकर करने से ही इसको पूरक आसन माना जाता है । अतः इसका कोई विपरीत या पूरक आसन नहीं होता है ।
वीरासन वर्णन
एकपादमथैकस्मिन्विन्यसेदूरूसंस्थितम् । इतरस्मिंस्तथा पश्चाद्वीरासनमितीरितम् ।। 17 ।।
भावार्थ :- एक पैर के पँजे को उल्टा करके दूसरे पैर की जँघा पर रखें ( जिस पैर के पँजे को जँघा पर रखा है उसके घुटने को जमीन पर टिकाकर रखना चाहिए ) । फिर उस दूसरे पैर को पीछे की ओर रखें ( जिस पैर पर पँजा रखा है ) । यह विधि वीरासन कहलाती है ।
धनुरासन वर्णन
प्रसार्य पादौ भुवि दण्डरूपौ करौ च पृष्ठे धृतपादयुग्मम् । कृत्वा धनुस्तुल्यपरिवर्त्तिताङ्गं निधाय योगी धनुरासनं तत् ।। 18 ।।
भावार्थ :- जमीन पर पेट के बल लेटकर दोनों पैरों को पीछे की ओर डण्डे की तरह फैला कर रखें । अब दोनों हाथों से अपने पैरों को पकड़कर ( बायें हाथ से बायां पैर व दायें हाथ से दायां पैर ) शरीर को धनुष की तरह खींचते हुए अंगों को बदलना चाहिए । अंगों को बदलने का अर्थ है अपने दोनों हाथों को कन्धों के ऊपर से घुमाना । इससे दोनों हाथों की कोहनियाँ आगे की ओर हो जाती हैं । यह विधि धनुरासन कहलाती है ।
मृतासन / शवासन वर्णन
उत्तान शववद् भूमौ शयानन्तु शवासनम् । शवासनं श्रमहरं चित्तविश्रान्तिकारणम् ।। 19 ।।
भावार्थ :- पेट व छाती को ऊपर की ओर करके भूमि पर सीधा लेटना शवासन कहलाता है । शवासन का अभ्यास करने से साधक के शरीर की थकान दूर होती है और चित्त को आराम मिलता है । विशेष :- मृतासन का दूसरा नाम शवासन है । परीक्षा में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि मृतासन का अन्य नाम क्या है ? इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि कौन सा आसन व्यक्ति की थकान मिटाने है और चित्त को विश्राम दिलाता है ? जिसका उत्तर है शवासन अथवा मृतासन ।।
गुप्तासन वर्णन
जानूर्वोरन्तरे पादौ कृत्वा पादौ च गोपयेत् । पादोपरि च संस्थाप्य गुदं गुप्तासनं विदुः ।। 20 ।।
भावार्थ :- सुखासन में बैठकर दोनों पैरों के पँजों को जाँघों के नीचे छिपाते हुए उनको पीछे की ओर रखें और उनके ऊपर गुदा प्रदेश को टिकाकर रखना गुप्तासन कहलाता है ।
मत्स्यासन वर्णन
मुक्तपद्मासनं कृत्वा उत्तानशयनञ्चरेत् । कूर्पराभ्यां शिरो वेष्टय मत्स्यासनन्तु रोगहा ।। 21 ।।
भावार्थ :- मुक्त पद्मासन करते हुए अर्थात् दोनों हाथों से पैरों के पँजों को बिना पकड़े केवल पद्मासन लगाकर सिर को अपनी दोनों कोहनियों के बीच में रखते हुए सीधा लेटना ( कमर के बल लेटना ) मत्स्यासन कहलाता है । मत्स्यासन साधक के सभी रोगों को दूर कर देता है ।।
पश्चिमोत्तान आसन वर्णन
प्रसार्य पादौ भुवि दण्डरूपौ संन्यस्तभालं चितियुग्ममध्ये । यत्नेन पादौ च धृतौ कराभ्यां योगिन्द्रपीठं पश्चिमोत्तानमाहु: ।। 22 ।।
भावार्थ :- अपने दोनों पैरों को भूमि पर सामने की ओर फैलाते हुए दण्डासन की स्थिति में बैठकर अपने माथे को दोनों घुटनों के बीच में रखते हुए दोनों पैरों के पँजों को मजबूती के साथ पकड़ें । योगियों ने इसे प्रमुख आसन माना है । जिसे पश्चिमोत्तान आसन कहते हैं । विशेष :- इस आसन में पीठ का अग्रगामी फैलाव होने से इसे पश्चिमोत्तान आसन कहा जाता है । इस प्रकार का प्रश्न भी कई बार परीक्षा में पूछ लिया जाता है ।
मत्स्येंद्रासन वर्णन
उदरं पश्चिमाभासं कृत्वा तिष्ठति यत्नतः । नम्राङ्गं वामपादं हि दक्षजानूपरि न्यसेत् ।। 23 ।। तत्र याम्यं कूपरञ्च याम्यं करे च वक्त्रकम् । भ्रुवोर्मध्ये गतां दृष्टिं पीठं मात्स्येन्द्रमुच्यते ।। 24 ।।
भावार्थ :- अपने पेट को पीछे पीठ ( कमर ) की ओर ले जाने का प्रयास करें और बायें पैर को आगे से घुमाते हुए दायें पैर के घुटने के पास में रखें । इसके बाद मुहँ को भी घुमाते हुए बायें हाथ ( कन्धे ) के ऊपर रखें और दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में ( आज्ञा चक्र ) में स्थित करदें । ऐसा करना मत्स्येन्द्रासन कहलाता है । विशेष :- मत्स्येन्द्रासन का नाम ऋषि मत्स्येन्द्रनाथ के नाम पर रखा गया है । कई बार परीक्षा में पूछ लिया जाता है कि मत्स्येन्द्रासन का सम्बन्ध किससे है या मत्स्येन्द्रासन को मत्स्येन्द्रासन ही क्यों कहा जाता है ? जिसका उत्तर है ऋषि मत्स्येंद्रनाथ ।
गोरक्षासन वर्णन
जानूर्वोन्तरे पादौ उत्तानौव्यक्तसंस्थितौ । गुल्फौ चाच्छाद्य हस्ता भ्यामुत्तानाभ्यां प्रयत्नतः ।। 25 ।। कण्ठ संकोचनं कृत्वा नासाग्रमवलोकयेत् । गोरक्षासनमित्याह योगिनां सिद्धिकारणम् ।। 26 ।।
भावार्थ :- अपने पैरों के दोनों तलवों को घुटने व जँघाओं के बीच में छिपाकर रखें और दोनों हाथों की हथेलियों से दोनों पैरों की एड़ियों के ऊपर स्थापित करदें । अब अपने कण्ठ प्रदेश को सिकोड़ते हुए नासिका के अग्रभाग ( नाक के अगले हिस्से को ) देखना चाहिए । यह योगियों को सिद्धि प्राप्त करवाने वाला गोरक्षासन कहलाता है ।
उत्कटासन वर्णन
अङ्गुष्ठाभ्यामवष्टभ्य धरां गुल्फौ च खे गतौ । तत्रोपरि गुदं न्यस्य विज्ञेयमुत्कटासनम् ।। 27 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों के अँगूठों के ऊपर पूरे शरीर का भार रखते हुए दोनों एड़ियों को ऊपर उठाकर उनके ऊपर गुदा प्रदेश ( दोनों नितम्बों ) को रखें । ऐसा करना उत्कटासन कहलाता है । विशेष :- श्लोक में गुदा प्रदेश को दोनों एड़ियों पर रखने की बात कही गई है जो कि सम्भव प्रतीत नहीं होती । यहाँ पर ऋषि घेरण्ड का मत दोनों नितम्बों से रहा होगा । ऐसा मेरा मानना है । क्योंकि दोनों एड़ियों पर एक साथ गुदा प्रदेश को रखना तर्कपूर्ण नहीं है ।
संकटासन वर्णन
वामपादं चित्तेर्मूलं संन्यस्य धरणीतले । पाद दण्डेन याम्येन वेष्टयेद्वामपादकम् । जानुयुग्मे कर युग्ममेतत्संकटासनम् ।। 28 ।।
भावार्थ :- बायें पैर के घुटने के अग्रभाग ( अगले हिस्से को ) को जमीन पर टिकाते हुए दायें पैर को बायें पैर पर लपेटकर दोनों हाथों की हथेलियों को दोनों पैरों के घुटनों पर रखें । इस विधि को संकटासन कहते हैं ।
मयूरासन वर्णन
धरामवष्टभ्य करयोस्तलाभ्यां तत्कूर्परे स्थापितनाभिपार्श्वम् । उच्चासनो दण्डवदुत्थित: खे मायूरमेतत्प्रवदन्ति पीठम् ।। 29 ।।
भावार्थ :- दोनों हाथों की हथेलियों को जमीन पर मजबूती के साथ रखते हुए दोनों कोहनियों को नाभि प्रदेश के दोनों तरफ ( दायीं व बायीं ओर ) रखकर पूरे शरीर को दोनों कोहनियों पर डण्डे के समान सीधा उठाकर रखना मयूरासन कहलाता है । विशेष :- मयूरासन का नामकरण मोर नामक पक्षी पर रखा गया है । जिस प्रकार मोर अपने पूरे शरीर को अपनी कोहनियों पर उठाए रखता है । उसी प्रकार शरीर की स्थिति करने को मयूरासन कहते हैं । मयूरासन से जठराग्नि इतनी तीव्र हो जाती है कि विषाक्त भोजन खाने पर भी वह उसे शीघ्र पचा देता है । इसलिए मयूरासन करने वाले साधक को कभी भी पाचन तंत्र से जुड़ी कोई समस्या नहीं होती । इस आसन को महिलाओं के लिए वर्जित माना जाता है । इसका कारण यह है कि जहाँ पर दोनों कोहनियों को रखा जाता है । वहाँ पर महिलाओं का गर्भाशय स्थित होता है । इसके करने से कई बार महिलाओं को गर्भाशय से जुड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इसलिए इसे महिलाओं के लिए प्रायः वर्जित माना जाता है । ऊपर वर्णित सभी बातें परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी हैं ।
कुक्कुटासन वर्णन
पद्मासनं समासाद्य जानूर्वोन्तरे करौ । कर्पूराभ्यां समासीन उच्चस्थ: कुक्कुटासनम् ।। 30 ।।
भावार्थ :- पद्मासन लगाकर अपने दोनों हाथों को पिंडलियों व जाँघों के बीच में से निकालते हुए भूमि पर दोनों हथेलियों को अच्छे से स्थापित करदें । इससे शरीर जमीन से ऊपर उठ जाएगा । इस स्थिति में साधक को ऐसा प्रतीत है कि वह किसी मंच अथवा लकड़ी के स्टूल पर बैठा है । इसे कुक्कुटासन कहते हैं ।
कूर्मासन वर्णन
गुल्फौ च वृषणस्याधो व्युत्क्रमेण समाहितौ । ऋजुकायशिरोग्रीवं कूर्मासनमितीरितम् ।। 31 ।।
भावार्थ :- सुखासन में बैठकर अपने दोनों पैरों को उल्टा करके एड़ियों के ऊपर अंडकोशों को रखें । फिर अपने सिर, गर्दन व शरीर को सीधा रखना ( एक सीध में ) कूर्मासन कहलाता है । विशेष :- कूर्मासन के विषय में पूछा जा सकता है कि कूर्मासन में कूर्म का क्या अर्थ है ? जिसका उत्तर है कछुआ । कछुए को संस्कृत भाषा में कूर्म बोला जाता है । इस आसन में शरीर की स्थिति कछुए के समान हो जाती है । जिसके कारण इसे कूर्मासन कहा जाता है ।
उत्तानकूर्मासन वर्णन
कुक्कुटासनबन्धस्थं कराभ्यां धृतकन्धरम् । पीठं कूर्मवदुत्तानमेतदुत्तानकूर्मकम् ।। 32 ।।
भावार्थ :- पहले कुक्कुटासन की स्थिति में बैठें ( कुक्कुटासन की स्थिति के लिए श्लोक संख्या 30 को देखें ) । अब दोनों हाथों से अपने कन्धों अथवा गर्दन को पकड़कर कछुए के समान सीधे लेट जाना उत्तान कूर्मासन कहलाता है ।
उत्तानमण्डूक आसन
मण्डूकासनमध्यस्थं कूर्पराभ्यां धृतं शिर: । एतत् भेकवदुत्तानमेतदुत्तान मण्डुकम् ।। 33 ।।
भावार्थ :- भावार्थ :- सर्वप्रथम मण्डूकासन की स्थिति में बैठकर ( मण्डूकासन की स्थिति को जानने के लिए श्लोक संख्या 35 देखें ) दोनों हाथों की हथेलियों से अपने सिर को पकड़ते हुए मेंढक की तरह सीधा लेट जाना उत्तान मण्डूकासन कहलाता है ।
वृक्षासन वर्णन
वामोरुमूलदेशे च याम्यं पादं निधान तु । तिष्ठेत्तु वृक्षवद् भूमौ वृक्षासनमिदं विदुः ।। 34 ।।
भावार्थ :- बायें पैर की जँघा पर दायें पैर ( तलवे को ) को स्थापित ( रखकर ) करके भूमि पर पेड़ की भाँति सीधे खड़े रहना वृक्षासन कहलाता है । विशेष :- वृक्षासन का सम्बंध पेड़ से होता है । जिस प्रकार पेड़ एक ही तने के ऊपर सीधा खड़ा रहता है । ठीक उसी प्रकार शरीर को एक पैर पर स्थिर कर देना वृक्षासन कहलाता है ।
मण्डूकासन वर्णन
पृष्ठदेशे पादतलौ अङ्गुष्ठे द्वे च संस्पृशेत् । जानुयुग्मं पुरस्कृत्य साधयेन् मण्डुकासनम् ।। 35 ।।
भावार्थ :- दोनों घुटनों को जमीन पर रखते हुए दोनों पैरों के तलवों को पीछे की ओर करें और अँगूठों को जमीन पर टिकाकर रखें । शरीर की इस स्थिति को मण्डूकासन कहते हैं । विशेष :- मण्डूकासन में मण्डूक शब्द का अर्थ मेंढक होता है । जिसको कई बार परीक्षा में भी पूछ लिया जाता है ।
गरुड़ासन वर्णन
जंघोंरुभ्यां धरां पीड्य स्थिरकायो द्विजानुनी । जानूपरि करयुग्मं गरुड़ासनमुच्यते ।। 36 ।।
भावार्थ :- दोनों जाँघों व घुटनों से भूमि को दबाते हुए दोनों हाथों घुटनों के ऊपर हाथों को टिकाकर रखना गरुड़ासन कहलाता है । विशेष :- गरुड़ासन में गरुड़ शब्द का अर्थ गरुड़ नामक पक्षी होता है । जिसे हम इंग्लिश में ईगल व हिन्दी में बाज कहते हैं । लेकिन यहाँ पर गरुड़ासन की जिस विधि का वर्णन किया गया है और जो वर्तमान समय में गरुड़ासन की प्रचलित विधि है । इन दोनों में बहुत अन्तर है ।
वृषासन वर्णन
याम्यगुल्फे पायुमूलं वामभागे पदेतरम् । विपरीतं स्पृशेद् भूमिं वृषासनमिदं भवेत् ।। 37 ।।
भावार्थ :- दायें पैर की एड़ी को गुदाद्वार पर रखकर बायें पैर को मोड़ते हुए भूमि पर उसका स्पर्श करें । यह वृषासन कहलाता है ।
शलभासन वर्णन
अधास्य शेते करयुग्मं वक्षे भूमिमवष्टभ्य करयोस्तलाभ्याम् । पादौ च शून्ये च वितस्ति चोर्ध्वंवदन्ति पीठं शलभं मुनीन्द्रा: ।। 38 ।।
भावार्थ :- पहले भूमि पर पेट के बल लेटकर दोनों हाथों की हथेलियों को छाती के नीचे जमीन की ओर करें । अब मुख को नीचे की तरफ रखते हुए दोनों पैरों को ऊपर आकाश की ओर लगभग एक बिलात ( 9 से 12 इंच तक ) उठाएं । श्रेष्ठ योगी मुनियों ने इसे शलभासन का नाम दिया है । विशेष :- शलभासन में शलभ शब्द का अर्थ टिड्डी नामक कीट होता है । जो पीछे से थोड़ा उठा रहता है । इसी कारण इस आसन का नाम शलभासन पड़ा है । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।
मकरासन वर्णन
अधास्य शेते हृदयं निधाय भूमौ च पादौ च प्रसार्यमाणौ । शिरे च धृत्वा करदण्डयुग्मे देहाग्निकारं मकरासनं तत् ।। 39 ।।
भावार्थ :- हृदय प्रदेश को नीचे रखते हुए पेट के बल लेटकर दोनों पैरों को पीछे की ओर डण्डे की तरह सीधा फैलाएं । इसके बाद दोनों हाथों की हथेलियों पर अपने माथे को रखें । इस स्थिति को मकरासन कहा गया है । इस मकरासन के अभ्यास से साधक की जठराग्नि प्रदीप्त ( तीव्र ) होती है । विशेष :- मकर का अर्थ होता है मगरमच्छ । जब मगरमच्छ आराम करता है तो वह इसी अवस्था में रहता है साथ ही मगरमच्छ की पाचन शक्ति बहुत अच्छी होती है । इसलिए मगरमच्छ के जैसी अवस्था होने व उस जैसी पाचन शक्ति होने के कारण इसे मकरासन का नाम दिया गया है ।
उष्ट्रासन वर्णन
अधास्य शेते पदयुग्मव्यस्तं पृष्ठे निधायापि धृतं कराभ्याम् । आकुञ्चयेत्सम्यगुदरास्यगाढमौष्ट्रञ्च पीठं योगिनो वदन्ति ।। 40 ।।
भावार्थ :- अपने मुख को नीचे ( पीछे की ओर ) करते हुए दोनों पैरों को पीछे की ओर करते हुए अलग- अलग खोलें । दोनों हाथों को घुमाते हुए पैरों को पकड़ें । इस अवस्था में पेट को अधिक से अधिक अन्दर की तरफ सिकोड़ें । इस स्थिति को योगीजनों ने उष्ट्रासन कहा है । विशेष :- उष्ट्रासन में उष्ट्र शब्द का अर्थ ऊँट होता है । ऊँट के समान आकृति होने के कारण इसे उष्ट्रासन कहा जाता है ।
भुजंगासन वर्णन
अङ्गुष्ठनाभिपर्यन्तमधोभूमौ विनिन्यसेत् । करतलाभ्यां धरां धृत्वा ऊर्ध्वंशीर्ष: फणीव हि ।। 41 ।। देहाग्निर्वर्द्धते नित्यं सर्वरोगविनाशनम् । जागर्ति भुजनी देवी भुजंगासनसाधनात् ।। 42 ।।
भावार्थ :- दोनों हाथों की हथेलियों को जमीन में रखकर नाभि तक के शरीर को सिर समेत साँप के समान ( जिस प्रकार साँप अपने फण को उठाता है ) ऊपर की ओर उठाएं । दोनों हाथों के अँगूठे नाभि की ओर अथवा उसके समीप होने चाहिए । इस स्थिति को भुजंगासन कहते हैं । भुजंगासन का अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि प्रतिदिन तीव्र होती जाती है । इससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । इसके अलावा भुजंगासन की साधना करने से भुजंगी देवी ( कुण्डलिनी शक्ति ) जागृत होती है । विशेष :- भुजंग शब्द का अर्थ साँप होता है । साँप को ही संस्कृत भाषा में भुजंग बोला जाता है । इसमें शरीर की स्थिति साँप की भाँति होने से इसे भुजंगासन कहा जाता है । इसके अभ्यास से साधक की कुण्डलिनी शक्ति भी जागृत होती है । यह परीक्षा की दृष्टि से काफी उपयोगी जानकारी है ।
योगासन वर्णन
उत्तानौ चरणौ कृत्वा संस्थाप्य जानुनोपरि । आसनोपरि संस्थाप्य उत्तानं करयुग्मकम् ।। 43 ।। पूरकैर्वायुमाकृष्य नासाग्रमवलोकयेत् । योगासनं भवेदेतद्योगिनां योगसाधने ।। 44 ।।
भावार्थ :- दोनों पैरों के तलवों को ऊपर की ओर करते हुए अपनी जाँघों पर रखें । अब दोनों हाथों की हथेलियों को ऊपर की ओर ( सीधी ) करते हुए पैरों पर रखें । इसके बाद श्वास को शरीर के अन्दर भरकर नासिका के अग्रभाग ( अगले हिस्से ) को देखना चाहिए । योगियों ने इसे योग साधना को साधने ( सफलता दिलाने वाला ) वाला कहते हुए योगासन का नाम दिया है ।
।। इति द्वितीयोपदेश: समाप्त: ।।
इसी के साथ घेरण्ड संहिता का दूसरा अध्याय ( आसन वर्णन ) समाप्त हुआ ।
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